Sunday, February 2, 2014

बीरभूम दुष्कर्म कांड

चरम बर्बरता के दौर में औरत


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।। अलका आर्य ।।
महिला मामलों की लेखिका
राजनीति के अपराधीकरण से महिलाओं के खिलाफ हिंसा बढ़ी है. अपराधियों को संरक्षण देनेवाली राजनीति के इस पहलू पर देश के सभी सदनों में खुल कर चरचा होनी चाहिए. यहां दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर ही बड़ी बहस संभव है.
मुख्तारन माई-पाकिस्तान की एक कबीलाई औरत. एक आंख में उसका अक्स तो दूसरी तरफ अपने देश के पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के सुबलपुर ग्राम की एक आदिवासी युवती का.
दोनों ऐसे मुल्कों में जन्मीं, जहां देहाती क्षेत्रों में स्थानीय पंचायतें 21वीं सदी के दूसरे दशक में भी अपने बर्बर फैसलों को अमली जामा पहनाने में नहीं हिचक रही हैं. करीब 12 साल पहले पाकिस्तान की एक पंचायत ने मुख्तारन माई के साथ बलात्कार का फरमान इसलिए सुनाया था, क्योंकि उसके भाई ने अपने से ताकतवर जाति की लड़की से प्यार करने की जुर्रत की थी.
इधर, बीते 20 जनवरी को पश्चिम बंगाल में बीरभूम जिले के सुबलपुर गांव की 20 वर्षीय आदिवासी युवती द्वारा एक गैर आदिवासी लड़के से प्यार करने पर 25 हजार रुपये जुर्माना न भरने पर गांव के मुखिया ने वहां खड़े लोगों से कहा- जाओ और उसके साथ मजे करो.
पीड़िता के मुताबिक दुष्कर्म करनेवाले करीब 12 थे. इनमें पीड़िता के छोटे भाई की उम्र से लेकर पिता की उम्र तक के लोग शामिल थे. इस चरम बर्बरता को सुन रोंगटे ही खड़े नहीं होते, बल्कि सरकारी व्यवस्था, राजनीति के मौजूदा चरित्र व समाज को लेकर एक आक्रोश उठता है.
किसी देश की वृद्धि व विकास का रास्ता महिलाओं के सशक्तीकरण के लक्ष्य को नजरअंदाज नहीं कर सकता. इसके लिए महिला-सुरक्षा जरूरी है. 65वें गणतंत्र दिवस पर हुक्मरानों से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि कब तक ऐसी पंचायतें अपने वीभत्स न्याय का कहर कमजोर वर्ग और खास कर महिलाओं पर ढहाती रहेंगी.
पश्चिम बंगाल के आदिवासी बहुल इलाकों में ‘शलिशी अदालत’ और हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ‘खाप’ नाम से मशहूर पंचायतें आधुनिक लोकतंत्र की न्यायप्रणाली में आस्था रखने की बजाय खुद ही दबंगई से फैसले सुना देती हैं. चिंता का एक अहम पहलू ऐसी पंचायतों को मिलनेवाला राजनीतिक संरक्षण है.
इस सामूहिक बलात्कार कांड के पकड़े गये आरोपियों में से कुछेक का ताल्लुक राज्य के सत्तारूढ़ दल से है. बीरभूम जिले की ही एक शलिशी अदालत ने 2010 में इसी जुर्म में एक आदिवासी लड़की को नंगा करके दस किलोमीटर तक घुमाया था. बीते कई दशकों से वहां जो चल रहा है, सूबे के हुक्मरान उससे नावाकिफ होंगे, इस पर यकीन न करने के कई साक्ष्य मौजूद हैं. इन पंचायतों में मौत की सजा तक सुना दी जाती है और वहां इकट्ठा होनेवाले हुजूम को चुप रहने की कसम खिलायी जाती है.

इसमें कोई दो मत नहीं कि शलिशी अदालतों का इस्तेमाल अकसर राजनीतिक बदला लेने के लिए भी किया जाता है. वाम शासन के वक्त भी शलिशी अदालतों नें महिलाओं और कमजोर वर्ग को अपना निशाना बनाया था.
2004 में वाम सरकार ने शलिशी अदालतों की गैर कानूनी प्रणाली को कानून के दायरे में लाने के लिए एक बिल भी तैयार किया था, मगर कांग्रेस और तृणमूल ने इसके राजनीतिक विरोध के लिए मुहिम छेड़ दी और तत्कालीन राज्य सरकार ने ऐसे हालात के मद्देनजर विधानसभा में बिल पेश नहीं किया.
तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस ने वाम मोरचा सरकार के इस कदम का विरोध इसलिए किया, क्योंकि उनका मानना था कि इस बिल की आड़ में वामपंथी पार्टी, खासकर सीपीएम, ब्लॉक स्तर के बोर्ड में अपनी ही विचारधारा के लोगों को भर देगी और इससे गांवों में उसकी राजनीतिक पकड़ मजबूत हो जायेगी. नफा-नुकसान की राजनीति का एक दुष्परिणाम महिलाओं को लोकतंत्र और मानवाधिकारों के युग में किस तरह सहना पड़ता है, इसका ताजा उदाहरण 20 जनवरी की घटना है. रस्सियों से बांध कर उसको बांसों के स्टेज पर लिटा दिया गया, ताकि सामूहिक दुष्कर्म को पूरा गांव देखे.
राजनीति के अपराधीकरण से महिलाओं के खिलाफ हिंसा बढ़ी है. अपराधियों को संरक्षण देनेवाली राजनीति के इस पहलू पर देश की विधानसभाओं और संसद में खुल कर चरचा होनी चाहिए. यहां दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर ही बड़ी बहस की गुंजाइश है. हाल ही में शिवसेना अध्यक्ष ने अपने मुखपत्र ‘सामना’ के संपादकीय में लिखा कि ‘केजरीवाल के बजाय राखी सावंत बेहतर सरकार चला सकती है.
केजरीवाल और उनकी ‘आप’ सबसे बदनाम आइटम गर्ल बन गयी हैं.’ इस तुलना में औरत की बाजार द्वारा गढ़ी गयी छवि का प्रयोग एक राजनेता द्वारा किया गया है. चुनाव के दौरान विभिन्न राजनीतिक दल महिला उम्मीदवारों के लिए जिस अमर्यादित भाषा का प्रयोग करते हैं, उससे हम सभी वाकिफ हैं.

बड़े नेताओं को इस बात का एहसास होना चाहिए कि अगर वे खुद ही महिलाओं को बराबरी वाले दरजे से नहीं देखेंगे, तो निचले क्रम वाले कैसे देखेंगे? सुबलपुर देहाती क्षेत्र की यह नितांत अमानवीय घटना इस बात की भी तस्दीक करती है कि बर्बर पंचायतों पर कानूनी नकेल कसना कितना जरूरी है.

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