Sunday, September 29, 2013

चुनाव सुधार की राह पर बढ.ते कदम

चुनाव सुधार की राह पर बढ.ते कदम


चुनाव सुधार भारत के लोकतंत्र के सामने मौजूद बेहद अहम मुद्दा है. हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट ने सक्रियता दिखाते हुए इस दिशा में कुछ ऐतिहासिक फैसले सुनाये हैं. मतदाता को ‘निगेटिव वोटिंग का अधिकार’ देनेवाले फैसले को इसका विस्तार माना जा सकता है. यह महज संयोग नहीं है कि जिस दिन सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आया, कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी दागी जन-प्रप्रतिनिधियों को राहत देनेवाले अपनी ही सरकार के अध्यादेश को बेतुका करार दे रहे थे. इसमें यह संदेश छिपा था कि राजनीतिक दलों को यह एहसास हो गया है कि जनता चुनाव सुधार चाहती है और इस प्रक्रिया को ज्यादा दिन तक रोक कर नहीं रखा जा सकता. चुनाव सुधार की दिशा में कितने दूर बढे. हैं हमारे कदम और अभी कितना सफर है बाकी, ऐसे ही मसलों की पड.ताल करता समय..

आगे बढे. हैं, लेकिन अभी दूर है मंजिल

सुभाष कश्यप
संविधानविद्

चुनाव सुधारों की कड.ी में सुप्रीम कोर्ट ने इवीएम में मतदाताओं को ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प देने का आदेश दिया है. यह आदेश महत्वपूर्ण है, लेकिन इससे निर्वाचन प्रक्रिया में कोई बड.ा बदलाव आने की उम्मीद नहीं की जा सकती है. जमीनी स्तर पर चुनाव सुधार की दिशा में इसका असर नहीं पडे.गा, क्योंकि पहले भी मतदाताओं के पास उम्मीदवारों को खारिज करने का विकल्प था.





पराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को संसद और विधानसभा में पहुंचने से किस तरह रोका जाये, यह कई वर्षों से चिंता का विषय रहा है. चुनाव सुधार को लेकर कई समितियां भी बनीं, लेकिन उनकी सिफारिशें सिर्फ बहसों का हिस्सा बन कर रह गयीं. वोहरा कमिटी ने राजनीति के अपराधीकरण को लेकर गंभीर चिंता जाहिर करते हुए इस पर अंकुश लगाने के लिए कई सुझाव दिये थे. लेकिन, यह रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गयी. उसी तरह इंद्रजीत गुप्ता कमिटी की रिपोर्ट में भी चुनाव सुधार को लेकर कई अहम सिफारिशें की गयी थीं. वर्ष 2000 में बने संविधान समीक्षा आयोग की रिपोर्ट में भी निर्वाचन व्यवस्था में व्यापक बदलाव की सिफारिश की गयी थी, ताकि राजनीति के अपराधीकरण पर रोक लगायी जा सके. लेकिन, राजनीतिक दलों की अनिच्छा के कारण चुनाव सुधार की दिशा में बडे. बदलाव नहीं हो पाये.

हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा राजनीति में अपराधी तत्वों के प्रवेश पर रोक लगाने संबंधी ऐतिहासिक फैसले आये. लेकिन, दुर्भाग्यवश इन फैसलों पर अमल करने के बजाय सरकार ने संसद के जरिये इन्हें खारिज करने का प्रयास किया. हिरासत में लिये गये लोगों के चुनाव लड.ने पर पाबंदी लगानेवाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद में सभी राजनीतिक दलों ने मिल कर निरस्त कर दिया. इसी प्रकार, दो साल से अधिक की सजा पाये जन-प्रप्रतिनिधियों की तत्काल सदस्यता खत्म करने के फैसले को भी संसद के जरिये निरस्त करने की कोशिश की गयी, लेकिन जब इसमें कामयाबी नहीं मिली, तो अध्यादेश के रास्ते दागी जन-प्रप्रतिनिधियों को बचाने का प्रयास किया गया. जब भाजपा और अन्य दलों ने इसका विरोध किया और राष्ट्रपति ने अध्यादेश को लौटाने का संकेत दिया, तो शीला दीक्षित से लेकर मिलिंद देवड.ा जैसे कांग्रेसी नेताओं ने विरोध करने का नाटक शुरू कर दिया. इस फैसले से लोगों में बढ. रहे गुस्से और अध्यादेश पर दस्तखत करने की राष्ट्रपति की अनिच्छा को देखते हुए कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी अध्यादेश लाने को गलत ठहरा कर अपनी छवि बेहतर करने की कोशिश की है. राहुल गांधी के विरोध के बाद सरकार शायद अध्यादेश वापस ले ले. लेकिन, सवाल है कि क्या राहुल गांधी को पहले अध्यादेश की जानकारी नहीं थी? ऐसा मानना मुमकिन नहीं है. सरकार के इस फैसले से कांग्रेस के प्रति लोगों में गलत संदेश गया है और इसका राजनीतिक नुकसान आगामी चुनाव में पार्टी को उठाना पड. सकता है.

सुधारों की कड.ी में सुप्रीम कोर्ट ने इवीएम में मतदाताओं को ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प देने का आदेश दिया है. यह आदेश महत्वपूर्ण है, लेकिन इससे निर्वाचन प्रक्रिया में कोई बड.ा बदलाव आने की उम्मीद नहीं की जा सकती है. जमीनी स्तर पर चुनाव सुधार की दिशा में इसका असर नहीं पडे.गा, क्योंकि पहले भी मतदाताओं के पास उम्मीदवारों को खारिज करने का विकल्प था. कोई भी मतदाता पीठासीन अधिकारी से 49(0) फार्म लेकर यह विकल्प आजमा सकता था. अदालत के फैसले के बाद इवीएम मशीन में इसका प्रावधान कर दिया जायेगा, जबकि जमीनी हकीकत यह है कि राजनीतिक दल मतदाताओं को प्रलोभन देकर मतदान केंद्र तक ले जाते हैं. ऐसे बहुत से मतदाता भी हैं, जो पसंद का उम्मीदवार न होने के कारण मतदान केंद्र पर जाते ही नहीं हैं. लोकतंत्र में चुनाव महत्वपूर्ण होता है और चुनाव किसी को निर्वाचित करने के लिए ही होता है. यह मान लें कि सभी उम्मीदवार दागी हैं और किसी को नहीं चुना जायेगा, तो क्या नतीजा होगा? इससे लोकतंत्र में अराजकता फैल जायेगी. ऐसे में मेरा मानना है कि इस फैसले से चुनाव सुधार की दिशा में खास बदलाव नहीं आयेगा.

जनप्रप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को रद्द करना ऐतिहासिक फैसला है, क्योंकि पहले दोषी ठहराये जाने और दो वर्ष से ज्यादा सजा होने पर किसी व्यक्ति को चुनाव लड.ने के अयोग्य तो करार दिया जाता था, लेकिन यदि कोई व्यक्ति दोषी ठहराये जाने वक्त संसद या किसी विधानसभा का सदस्य होता था, तो वह तीन महीने के भीतर अपील दायर कर सदन का सदस्य बना रहता था. अब वे ऐसा नहीं कर पायेंगे. लेकिन, यह नहीं समझना चाहिए कि इस एक फैसले से निर्वाचन व्यवस्था की समस्याओं का समाधान हो जायेगा. चुनाव सुधार के लिए कानून बनाने का काम संसद का है, लेकिन देश के राजनेता निहित स्वाथरें के कारण भ्रष्ट व्यवस्था बनाये रखने के पक्षधर हैं. इसकी सबसे बड.ी वजह यह है कि राजनीतिक दलों को अपनी पार्टी चलाने, चुनाव लड.ने के लिए बडे. पैमाने पर पैसे की जरूरत होती है. वे चुनाव जीतने के लिए करोड.ों रुपये खर्च करते हैं. राजनेता और राजनीतिक दल अपने खर्च के लिए ज्ञात व अज्ञात स्रोतों से चंदा लेते हैं. यही कारण है कि जब राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लाने की कोशिश की गयी, तो इसे भी सभी दलों ने मिल कर नाकाम कर दिया. जब कोई व्यक्ति या संगठन राजनेता और दलों को चंदा देता है, तो उसके बदले वह कई काम कराने की फिराक में रहता है. यहीं से कालेधन और भ्रष्टाचार की शुरुआत होती है. यह जग-जाहिर है कि राजनीति में आपराधिक तत्वों का प्रवेश इसी कारण हुआ है. लगभग 30 फीसदी जनप्रप्रतिनिधि आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं. यह कहना गलत है कि इस फैसले का राजनीतिक दुरुपयोग हो सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने कानून नहीं बनाया है. उसने केवल कानून के असंवैधानिक पहलू को रेखांकित करते हुए फैसला दिया है. यह काम संसद को करना चाहिए था, लेकिन उल्टे सरकार फैसले को निरस्त करने पर आमादा है .

आज न्यायपालिका इस कारण इतनी सक्रिय नजर आ रही है, क्योंकि विधायिका अपना काम नहीं कर पा रही है. सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसलों की अपनी अहमियत है, लेकिन बडे. बदलावों के लिए जनता को ही दबाव बनाना होगा. सबसे पहले चुनावों में धनबल के बढ.ते प्रयोग पर रोक लगानी होगी. स्टेट फंडिंग की व्यवस्था से इसे रोका जा सकता है, लेकिन आज लगभग 1,250 राजनीतिक दल पंजीकृत हैं. दलों की भीड. को रोकने के लिए कम से कम आधे राज्यों में 5 फीसदी वोट पाने वाली पार्टी को राष्ट्रीय दल और इससे कम पाने वाली पार्टी को क्षेत्रीय पार्टी माना जाना चाहिए. इसी आधार उन्हें चुनाव लड.ने के लिए सरकारी पैसा दिया जाना चाहिए. यह पैसा नकद में देने के बजाय, सभा करने, पोस्टर, विज्ञापन आदि के लिए छूट के तौर पर दिया जाना चाहिए. साथ ही चुनाव आयोग के पास किसी दल की मान्यता रद्द करने का अधिकार भी होना चाहिए. चुनाव सुधार के लिए सबसे पहले राजनीतिक दलों में अंदरूनी लोकतंत्र की बहाली जरूरी है. यही नहीं उम्मीदवारों के चयन में जनता की भागीदारी होनी चाहिए. एक उम्मीदवार को एक ही क्षेत्र से चुनाव लड.ने की छूट होनी चाहिए. इनके अलावा भी अन्य कई कदम उठाने की जरूरत है. मौजूदा हालात को देखते हुए चुनाव सुधार करना समय की मांग है.


न्यायिक सक्रियता और राजनीति

सुप्रीम कोर्ट के हालिया ऐतिहासिक फैसले

जुलाई महीने की 10 और 11 तारीख को सुप्रीम कोर्ट ने जनप्रप्रतिनिधियों से जुडे. दो अहम मामलों में ऐतिहासिक फैसले दिये थे. 10 जुलाई के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी भी मामले में कोई भी कोर्ट अगर किसी सांसद या विधायक को दो साल से अधिक की सजा सुनाती है, तो उसकी सदस्यता तत्काल प्रभाव से रद्द हो जायेगी. ऊपरी अदालत में अपील के नाम पर उसकी सदस्यता बची नहीं रहेगी. सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को सभी निर्वाचित जनप्रप्रतिनिधियों पर तत्काल प्रभाव से लागू करने का आदेश भी दिया. सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए जनप्रप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को निरस्त कर दिया. कोर्ट ने इन दागी प्रत्याशियों को एक राहत यह जरूर दी कि अगर सुप्रीम कोर्ट का कोई भी फैसला इनके पक्ष में आयेगा, तो इनकी सदस्यता स्वत: ही वापस हो जायेगी. गौरतलब है कि पहले अपील करने के बाद ऊपरी कोर्ट का फैसला आने तक सदस्यता बनी रहती थी. 11 तारीख को सुनाये एक अन्य फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर कोई शख्स किसी वजह से जेल में बंद है यानी वह वोट देने की स्थिति में नहीं है, तो उसे चुनाव लड.ने का भी अधिकार नहीं होगा. शीर्ष अदालत के इन दो फैसलों के खिलाफ केंद्र सरकार ने पुनर्विचार याचिका दाखिल की. लेकिन, 04 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी. हालांकि, जेल से चुनाव न लड. पाने के मामले में दायर केंद्र सरकार की ऐसी ही याचिका कोर्ट ने सुनवाई के लिए मंजूर कर ली.

चुनाव सुधार की दिशा में 27 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट का एक और फैसला आया. सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को आदेश दिया कि वह इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों और मतपत्रों में प्रत्याशियों की सूची के आखिर में ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प मुहैया कराए, ताकि मतदाता चुनाव लड. रहे प्रत्याशियों से असंतुष्ट होने की स्थिति में उन्हें अस्वीकार कर सके.

संसद का रुख

्रपुनर्विचार याचिका खारिज होने के बाद 7 सितंबर को लोकसभा में महज 15 मिनट के भीतर जेल से चुनाव न लड.ने के फैसले को पलट दिया गया. राज्यसभा में जनप्रप्रतिनिधित्व कानून में यह संशोधन 27 अगस्त को ही कर दिया गया था.

अध्यादेश और राजनीति

केंद्रीय कैबिनेट ने 25 तारीख को सुप्रीम कोर्ट के दो साल की सजा के बाद सदस्यता रद्द होने संबंधी फैसले को पलटते हुए नये अध्यादेश को मंजूरी दे दी. अध्यादेश के अनुसार, अगर किसी सांसद या विधायक को किसी आपराधिक मामले में दो साल से ज्यादा की सजा मिलती है, तो भी उसकी सदस्यता नहीं छिनेगी.

अध्यादेश के बाद राजनीति तेज हो गयी. भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के प्रप्रतिनिधिमंडल ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मिल कर अध्यादेश पर हस्ताक्षर न करने की अपील की. इसके बाद खबर आयी कि राष्ट्रपति भी सरकार के इस कदम से नाराज हैं और उन्होंने गृह मंत्री को तलब किया है. सरकार को सबसे बड.ा झटका तब लगा, जब खुद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने 27 सितंबर को तल्ख लहजे में अध्यादेश का विरोध किया. राहुल गांधी ने कहा, ‘इस अध्यादेश के बारे में मेरा यही कहना है कि इसे फाड. कर फेंक देना चाहिए. जहां तक इस अध्यादेश का सवाल है, तो यह बिल्कुल बेतुका है, इसे रोका जाना चाहिए.’

आरटीआइ के दायरे में न आने की कवायद

इसी वर्ष जून में केंद्रीय सूचना आयोग (सीआइसी) ने कहा था कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी समेत छह बड.ी राजनीतिक पार्टियां सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आती हैं और देश के नागरिक उनसे सूचना मांग सकते हैं. इसके बाद लगभग सभी बडे. दलों ने सर्वदलीय बैठक में सीआइसी के इस फैसले पर ऐतराज जताया. इसके बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल ने एक महत्वपूर्ण फैसला लेते हुए आरटीआइ कानून में संशोधन विधेयक को मंजूरी दे दी. सरकार संसद के मॉनसून सत्र में इस विधेयक को पेश करने का मन भी बना चुकी थी, लेकिन बाद में विधेयक को स्टैंडिंग कमिटी के पास भेज दिया गया.


दलों में आंतरिक लोकतंत्र जरूरी

नापसंदगी का अधिकार देकर सुप्रीम कोर्ट ने जनता को एक मजबूत हथियार दिया है. इस फैसले को सरकार और चुनाव आयोग किस तरह से और कितनी जल्दी लागू करते हैं, यह देखने वाली बात होगी. वैसे चुनाव आयोग ने यह साफ कर दिया है कि ऐसा करने पर ही हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था मजबूत होगी.



नाव सुधार एक निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है.यह एक दिन में नहीं किया जा सकता. जनता और नागरिक समाज लंबे अरसे से अपने जनप्रप्रतिनिधियों से चुनाव सुधार की मांग करते रहे हैं. सरकार द्वारा इन आवाजों को तरजीह न दिये जाने के कारण नागरिक समाज के प्रप्रतिनिधियों को सर्वो अदालत का दरवाजा खटखटाने को मजबूर होना पड.ता है. सुप्रीम कोर्ट जनभावना को समझते हुए और संविधान के दायरे में महत्वपूर्ण फैसले देता रहा है. चुनाव आयोग द्वारा इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में नापसंदगी का बटन लगाने के आदेश को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए.

चुनाव अभियान या वैसे भी सामान्य बातचीत में अकसर मतदाताओं की यह शिकायत रहती थी चुनाव मैदान में खडे. ज्यादातर प्रत्याशी एक जैसे हैं. इनको वोट देने का कोई मतलब नहीं है. ऐसी भावना के साथ जनता का एक वर्ग मतदान की प्रक्रिया से खुद को दूर रखता है. इसका एक परिणाम मतदान का प्रतिशत कम रहने के तौर पर देखा गया है. अब वैसे मतदाता जिनकी नजर में चुनाव मैदान में राजनीतिक दलों द्वारा उतारा गया कोईभी प्रत्याशी उपयुक्त नहीं है, वे नापसंदगी का बटन दबा कर अपनी राय जाहिर कर सकते हैं. इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इससे राजनीतिक दलों पर बेहतर प्रत्याशी खड.ा करने का दबाव बढे.गा और लोकतंत्र मजबूत होगा.सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को इस दिशा में जरूरी कदम उठाने का निर्देश देते हुए सरकार को भी साफ-साफ कहा है कि इसके लिए जरूरी उपाय करें.

अब अगर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर विचार करें और इसकी भविष्य के संदर्भ में व्याख्या करें, तो इसका मतलब यही हुआ कि अगर नापसंदगी का बटन दबानेवालों की संख्या जीत हासिल करनेवाले उम्मीदवार से ज्यादा होती है, तो विजय मत पानेवाले उम्मीदवार को विजेता घोषित न करते हुए फिर से चुनाव कराने की जरूरत पडे.गी. इसके साथ ही वैसे उम्मीदवारों को चुनावी प्रक्रिया में भागीदारी का मौका नहीं मिलेगा, जिन्हें बहुमत ने नापसंद कर दिया है. 50 फीसदी से ज्यादा वोट प्राप्त करनेवालों को ही विजेता घोषित किया जा सकेगा.

यह कहते हुए कि उम्मीदवार के जीतने की संभावना ज्यादा है, राजनीतिक दल बाहुबलियों, धनपतियों आदि को चुनाव मैदान में उतार देते हैं, भले ही जनता उन्हें पसंद करे या न करे. अब नापसंदगी के अधिकार के जरिये जनता को कम से कम ऐसे उम्मीदवारों को नकारने का मौका मिलेगा. साथ ही राजनीतिक दलों पर साफ-सुथरी छविवाले उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारने का भी दबाव होगा.

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने जनप्रप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को रद्द कर यह निर्देश दिया था कि जो भी सांसद या विधायक निचली अदालत में दोषी करार दिये जाते हैं, और अगर उन्हें दो साल से ज्यादा की सजा सुनाई जाती है, तो वे चुनाव नहीं लड. सकते. सरकार ने ऐसे जनप्रप्रतिनिधियों को अध्यादेश के जरिये कुछ राहत देने की कोशिश की है, ताकि उनकी सदस्यता बनी रहे. इससे चुनाव सुधार और राजनीतिक सुधार के विषय में सरकार की मंशा स्पष्ट जाहिर हुई. मेरा मानना है कि राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र और उनके लेन-देन को पारदश्री बनाना चुनाव सुधार के लिए बहुत ही जरूरी है.जगदीप छोकर

एडीआर के प्रमुखनापसंदगी का अधिकार देकर सुप्रीम कोर्ट ने जनता को एक मजबूत हथियार दिया है. इस फैसले को सरकार और चुनाव आयोग किस तरह से और कितनी जल्दी लागू करते हैं, यह देखने वाली बात होगी. वैसे चुनाव आयोग ने यह साफ कर दिया है कि ऐसा करने पर ही हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था मजबूत होगी.

राइट-टू-रिकॉल

जय प्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्र ांति आंदोलन के दौरान 1974 में ही इस अधिकार की मांग की थी. किसी जनप्रप्रतिनिधि के चुनाव क्षेत्र के मतदाता अगर उसके कामकाज से संतुष्ट नहीं होते, तो कार्यकाल पूरा होने से पहले उस जनप्रप्रतिनिधि को वापस बुलाने (रिकॉल) का अधिकार लोगों के पास हो. माना जा रहा है कि इससे जन प्रप्रतिनिधि ज्यादा जवाबदेह और जिम्मेदार बनेंगे.

मौजूदा स्थिति

फिलहाल ऐसे किसी प्रस्ताव पर सरकार या आयोग द्वारा विचार नहीं किया जा रहा है. हालांकि कुछ राज्यों में छोटे स्तर पर पंचायत, जिला परिषद व नगरपालिकाओं में इसे लागू किया जा चुका है.

दलों का रुख

भाजपा की एक कमिटी चुनाव सुधार को लेकर विचार कर रही है. कांग्रेस इसे व्यावहारिक नहीं मानती. जबकि माकपा इसे ेलागू करने की पक्षधर है.

अन्य देशों में स्थिति

स्विट्जरलैंड और वेनेजुएला में लागू है राइट-टू-रिकॉल.

सरकारी फंड

चुनाव लड.ने के लिए अगर सरकार राजनीतिक पार्टियों को पैसा दे, तो कुछ जानकारों का मानना है कि चुनावों में पैसे का दखल कम हो सकता है. इससे कम पैसे वाले लोग भी चुनाव लड. पायेंगे.

मौजूदा स्थिति

जून, 1998 में माकपा के इंद्रजीत गुप्ता की अगुवाई में एक संसदीय समिति बनी थी. कमिटी में मनमोहन सिंह, सोमनाथ चटर्जी, विजय कुमार मल्होत्रा आदि शामिल थे. कमिटी ने राजनीतिक दलों के लिए सरकारी फंडिंग की सिफारिश की थी. ये सिफारिशें सिर्फ राष्ट्रीय या राज्य स्तर की पार्टियों और उनके उम्मीदवारों के लिए ही थीं. अभी तक इस बारे में कोई नियम नहीं बना है.

दलों का रुख

अधिकतर इसके सर्मथन में हैं.

अन्य देशोें में

कई यूरोपीय, दक्षिण अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी देशों में चुनाव लड.ने के लिए पैसा वहां की सरकारें देती हैं.

चुनाव सुधारों का सफर


देश में चुनाव सुधारों को लेकर कई दशकों से बहस जारी है. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने 10 फरवरी, 1992 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव को एक पत्र लिख कर चुनाव सुधार पर मई, 1990 में पेश पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी समिति की रिपोर्ट को लागू करने की सिफारिश की थी. ऐसा नहीं है कि यह चुनाव सुधार के लिए पहली रिपोर्ट थी, इससे पहले भी इस कार्य हेतु कई रिपोर्ट आ चुकी हैं. चुनाव आयोग ने 1970 में विधि मंत्रालय को चुनाव सुधार से संबंधित अपना पहला विस्तृत प्रस्ताव प्रारूप सहित भेजा था. 1975 में माकपा, जनसंघ, अत्राद्रमुक आदि दलों की संयुक्त समिति ने अनेक सुझाव दिये. 1975 में आठ दलों ने एक स्मार पत्र (मेमोरेंडम) दिया, जिसमें कई सुझाव दिये गये थे. जेपी नारायण ने प्रसिद्ध न्यायविद् वीएम तारकुंडे की अध्यक्षता में चुनाव सुधार पर विचार के लिए एक कमेटी गठित की थी. चुनाव आयोग ने 1977 में पूर्व के सभी सुधारों से संबंधित प्रस्तावों की समीक्षा कर 22 अक्टूबर, 1977 को एक समग्र प्रतिवेदन भारत सरकार को भेजा था. 1982 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एसएल शकधर ने पूर्व के सभी सुझावों की समीक्षा के बाद एक नया प्रस्ताव भारत सरकार को भेजा. इस तरह लगातार इस संबंध में सुझाव आयोग द्वारा भारत सरकार को भेजे जाते रहे हैं, जिनमें कुछ पर ही अमल हो पाया. पिछले दिनों समाजसेवी अत्रा हजारे आंदोलन के जरिये कई चुनाव सुधारों को अमल में लाने की अपील की गयी, लेकिन सरकार या राजनीतिक दलों ने अपनी तरफ से कोईकदम नहीं उठाया. अलबत्ता सुप्रीम कोर्ट ने विभित्र याचिकाओं पर सुनवाईकरते हुए पिछले दिनों तीन अहम आदेश पारित किये.

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