Friday, September 4, 2015

आदर्श भूमि पट्टा अधिनियम: भू सुधार के क्षेत्र में प्रतीक्षित और उत्प्रेरकीय कदम

**Land Reforms** GS MAINS PAPER III (UPSC MAINS-2015)
=>"आदर्श भूमि पट्टा अधिनियम: भू सुधार के क्षेत्र में प्रतीक्षित और उत्प्रेरकीय कदम"
- नैशनल इंस्टीटयूशन फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया यानी नीति आयोग आदर्श भूमि पट्टा अधिनियम का मसौदा तैयार करने जा रहा है जो उन राज्यों के लिए मानक का काम करेगा जो अपने भूमि कानूनों में संशोधन करना चाहते हैं।
- यह उपाय भूमि क्षेत्र के एक बड़े और प्रतीक्षित सुधार के लिए उत्प्रेरक का काम कर सकता है। कई राज्यों ने आजादी के तत्काल बाद भूमि एवं काश्तकारी सुधारों के तहत अपने यहां पट्टा संबंधी नियमों में संशोधन किया था। परंतु उस वक्त के लिहाज से वे चाहे जितने प्रगतिशील रहे हों, अब उनमें से कई बेहद पुराने पड़ चुके हैं। आधी सदी बीत चुकी है और वे न केवल अप्रासंगिक बल्कि कई मायनों में तो नुकसानदेह भी साबित हो रहे हैं। वे जमीन के पट्टे और उप पट्टे की व्यवस्था को हतोत्साहित करते हैं जबकि यह प्रक्रिया अनिवार्य हो चली है क्योंकि इसके चलते उस जमीन को उत्पादक बनाया जा सकता है जो प्रवासियों की है और जिस पर खेती नहीं होती।
- इससे छोटे और सीमांत भूस्वामियों को अपनी जोत बढ़ाने का मौका मिलेगा क्योंकि वे उस जमीन को पट्टे पर ले सकेंगे। आजादी के बाद के समय और आज के समय में अंतर यह है कि औसत जोत तेजी से कम हो रही है। ऐसा इसलिए क्योंकि जमीन वारिसों के बीच बंट जाती है।
- कृषि जनगणना के मुताबिक औसत जोत सन 1970-71 के 2.28 हेक्टेयर से घटकर वर्ष 2010-11 में 1.15 हेक्टेयर रह गई। छोटे और सीमांत किसानों की बात करें तो कुल किसानों का 85 फीसदी होने के बावजूद कम जोत के चलते वे बमुश्किल जीवनयापन कर पाते हैं।
- उनकी छोटी जोत जल्दी ही और छोटी हो सकती है। ऐसे में या तो उसे अन्य किसानों को दे दिया जाए या दूसरों की जमीन पट्टे पर लेकर उसे खेती के लिहाज से व्यवहार्य बनाया जाना चाहिए। लेकिन हमारा कानूनी ढांचा इसकी इजाजत नहीं देता। अगर एक बार जमीन को पट्टों पर देने की प्रक्रिया को वैधानिक स्वरूप प्रदान कर दिया जाए तो भूस्वामियों के मन से यह डर जाता रहेगा कि अपनी जमीन पट्टेदार को देने के बाद वे उसका स्वामित्व गंवा सकते हैं।
- इसके परिणामस्वरूप जमीन का वह बड़ा हिस्सा जो उन परिवारों के पास है जो खेती नहीं करते और शहरी क्षेत्रों में रहने चले गए हैं, अचानक उपजाऊ काम के लिए उपलब्ध हो जाएगा। इतना ही नहीं अभी यह काम मौखिक, गैर बाध्यकारी समझौतों के जरिये होता है। इसकी जगह तब कानूनी रूप से प्रवर्तनीय पट्टा अनुबंध होने लगेंगे।
- फिलहाल जो किसान दूसरों की जमीन पट्टे पर लेकर खेती कर रहे हैं वे इस पट्टे की अवधि को लेकर अनिश्चित रहते हैं जिसका असर कृषि पर भी पड़ता है। दरअसल इन हालात में वे खेतों को समतल करने, कुएं खोदने, तटबंध बनाने और सही पोषण देने जैसे दीर्घावधि निवेश नहीं करते। इतना ही नहीं वे उपज बढ़ाने के लिए उन्नत बीज, उर्वरक और पौधों की रक्षा करने वाले रसायनों का प्रयोग भी नहीं करते।
- सबसे बुरी बात यह है कि पट्टे पर खेती करने वालों को संस्थागत ऋण, फसल बीमा, फसल के नुकसान पर हर्जाना और सरकारी सब्सिडी का प्रत्यक्ष हस्तांतरण तक नहीं मिलता। नीति आयोग ने भूमि रिकॉर्ड सुधारने और उनका डिजिटलीकरण करने की भी बात कही है।
- भूमि का स्वामित्व मोटे तौर पर प्रकल्पित और कानूनी चुनौती के योग्य होता है। जमीन से जुड़े विवाद दूर करने के लिए सही दस्तावेज होने जरूरी हैं। यदि ऐसा होगा तो किसानों में भी उत्पादकता बढ़ाने का उत्साह पैदा होगा और सरकार की कल्याण योजनाओं का लाभ भी उनको मिलेगा।
- ऐसे में भूमि रिकॉर्ड में सुधार और उसकी पट्टेदारी को कानूनी रूप देने की आवश्यकता निर्विवाद रूप से है। इस कदम के अलावा या इसके साथ ही ऐसे कदम भी उठाए जाने चाहिए ताकि सरकार पर जमीन की चकबंदी करने का दबाव बने।

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