Friday, September 4, 2015

प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना

मिट्टी को कृत्रिम रूप से पानी देकर उसमें उपलब्ध जल की मात्रा में वृद्धि करने की क्रिया ही सिंचाई है और आमतौर पर इसका प्रयोग फसल उगाने के दौरान शुष्क क्षेत्रों में या पर्याप्त वर्षा न होने की स्थिति में पौधों की जल आवश्यकता पूरी करने के लिए किया जाता है।
भारत की जलवायु में प्रायः पूरे वर्ष खेती की जाती है, इसलिए भारतीय कृषि की उत्पादकता को प्रभावित करने वाले तत्त्वों में सिंचाई के साधनों का बहुत अधिक महत्त्व है।
पूर्व ब्रिटिश प्रशासक सर चार्ल्स ट्रेविलियन (Sir Charles Trevelyan) का मत था कि, ‘‘भारत में भूमि से अधिक महत्त्वपूर्ण तो जल है, क्योंकि जब भूमि को जल द्वारा सिंचित किया जाता है तो भूमि की उपजाऊ शक्ति कई गुना बढ़ जाती है।’’ राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का भी यह विचार था कि, ‘‘सिंचाई की सुविधाओं के उपलब्ध न होने पर खेती एक जुए से ज्यादा और कुछ भी नहीं हो सकती।’’
उल्लेखनीय है कि भारत में निवल बुवाई क्षेत्र (Net Sown Area) लगभग 141 मिलियन हेक्टेयर है, जिसमें से लगभग 45 प्रतिशत क्षेत्र (लगभग 65 मिलियन हेक्टेयर) पर ही सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध हैं। वर्षा पर अत्यधिक निर्भरता के कारण असिंचित क्षेत्रों में कृषि एक उच्च जोखिम वाला और अल्प लाभकारी व्यवसाय मात्र बन कर रह गई है।
  • कृषि की मानसून पर निर्भरता कम करने और हर खेत तक सिंचाई सुविधा पहुंचाने के उद्देश्य से 1 जुलाई, 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में ‘आर्थिक मामलों पर मंत्रिमंडलीय समिति’ (CCEA) ने ‘प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना’ (PMKSY) को स्वीकृति प्रदान कर दी।
  • यह योजना अगले पांच वर्षों (2015-16 से 2019-20) के दौरान 50,000 करोड़ रुपये के परिव्यय से कार्यान्वित की जाएगी।
  • वर्तमान वित्त वर्ष में इस योजना हेतु 5300 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं।
  • प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना को वर्तमान में संचालित योजनाओं यथा-जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय के ‘त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम’ (AIBP), भूमि संसाधन विभाग के ‘समेकित वाटरशेड प्रबंधन कार्यक्रम’ (IWMP) तथा कृषि एवं सहकारिता विभाग के ‘राष्ट्रीय टिकाऊ कृषि मिशन’ (NMSA) के ‘खेत पर जले प्रबंधन’ (OFWM) घटक के एकीकरण से विकसित किया गया है।
  • प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के निम्नलिखित प्रमुख उद्देश्य हैं :-
  • सिंचाई में निवेश में एकरूपता लाना।
  • सुनिश्चित सिंचाई के तहत कृषि-योग्य क्षेत्र का विस्तार (हर खेत को पानी)।
  • खेतों पर ही जल का प्रयोग करने की दक्षता में सुधार लाना ताकि जल के अपव्यय को कम किया जा सके।
  • सही सिंचाई और जल की बचत करने वाली अन्य तकनीकों को अपनाना (प्रति बूंद अधिक फसल)।
  • बाह्य शहरी कृषि (Peri-Urban Agriculture) के लिए अपशिष्ट शहरी जल (Municipal Waste Water) को उपचारित कर उसके पुनर्प्रयोग की संभाव्यता का पता लगाना तथा सिंचाई में अधिक निजी निवेश को आकर्षित करना।
  • राष्ट्रीय स्तर पर इस योजना की निगरानी एवं निरीक्षण प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गठित एक ‘अंतर-मंत्रालयी राष्ट्रीय संचालन समिति’ (NSC) द्वारा किया जाएगा। जिसमें सभी संबंधित मंत्रालयों के केंद्रीय मंत्री शामिल होंगे।
  • कार्यक्रम के कार्यान्वयन, संसाधनों के आवंटन, अंतर-मंत्रालयी समन्वय, निगरानी एवं प्रदर्शन के आकलन आदि के लिए नीति आयोग के उपाध्यक्ष की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय कार्यकारी समिति (NEC) गठित की जाएगी।
  • राज्य के स्तर पर योजना का प्रशासन संबंधित राज्यों के मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक राज्य-स्तरीय मंजूरी प्रदान करने वाली समिति (SLSC) द्वारा किया जाएगा।
  • कार्यक्रम को और बेहतर ढंग से लागू करने के लिए जिला स्तर पर एक जिला स्तरीय कार्यान्वयन समिति भी होगी।
कृषकों के लाभार्थ शुरू की गईं अन्य पहलें
     पिछले एक वर्ष के दौरान, भारत सरकार ने कृषकों के लाभार्थ कई पहलें शुरू की हैं जिनमें प्रमुख हैं :-
  • प्रत्येक किसान को एक मृदा स्वास्थ्य कार्ड जारी करने के लिए एक नई योजना शुरू की गई है। मृदा और उर्वरक परीक्षण प्रयोगशालाओं की स्थापना के माध्यम से देश में ‘मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन’ (Soil Health Management) को बढ़ावा दिया जा रहा है।
  • जैविक कृषि (Organic Farming) को बढ़ावा देने के लिए ‘परंपरागत कृषि विकास योजना’ नामक एक नई योजना प्रारंभ की गई है।
  • किसानों से संबंधित विभिन्न मुद्दों को संबोधित करने के लिए दूरदर्शन ने किसान चैनल प्रारंभ किया है।
  • सरकार ‘कृषक उत्पादक संगठनों’ (Farmer Producer Organizations) के गठन को भी प्रोत्साहित कर रही है।
  • प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में किसानों को प्रदान की जाने वाली सहायता (लागत सब्सिडी के रूप में) में 50 प्रतिशत की वृद्धि की गई है।
  • प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित किसानों को सहायता के तहत फसल नुकसान से जुड़े मानदंडों में ढील देने की घोषणा की गई है। पहले के नियम के अनुसार, किसान तभी मदद का पात्र माना जाता था जब उसकी 50 प्रतिशत या उससे अधिक फसल का नुकसान होता था, लेकिन अब यदि किसान की 33 प्रतिशत फसल का भी नुकसान हुआ है तो उसे सरकारी मदद दी जाएगी।
  • विभिन्न खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) में वृद्धि की गई है।

आदर्श भूमि पट्टा अधिनियम: भू सुधार के क्षेत्र में प्रतीक्षित और उत्प्रेरकीय कदम

**Land Reforms** GS MAINS PAPER III (UPSC MAINS-2015)
=>"आदर्श भूमि पट्टा अधिनियम: भू सुधार के क्षेत्र में प्रतीक्षित और उत्प्रेरकीय कदम"
- नैशनल इंस्टीटयूशन फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया यानी नीति आयोग आदर्श भूमि पट्टा अधिनियम का मसौदा तैयार करने जा रहा है जो उन राज्यों के लिए मानक का काम करेगा जो अपने भूमि कानूनों में संशोधन करना चाहते हैं।
- यह उपाय भूमि क्षेत्र के एक बड़े और प्रतीक्षित सुधार के लिए उत्प्रेरक का काम कर सकता है। कई राज्यों ने आजादी के तत्काल बाद भूमि एवं काश्तकारी सुधारों के तहत अपने यहां पट्टा संबंधी नियमों में संशोधन किया था। परंतु उस वक्त के लिहाज से वे चाहे जितने प्रगतिशील रहे हों, अब उनमें से कई बेहद पुराने पड़ चुके हैं। आधी सदी बीत चुकी है और वे न केवल अप्रासंगिक बल्कि कई मायनों में तो नुकसानदेह भी साबित हो रहे हैं। वे जमीन के पट्टे और उप पट्टे की व्यवस्था को हतोत्साहित करते हैं जबकि यह प्रक्रिया अनिवार्य हो चली है क्योंकि इसके चलते उस जमीन को उत्पादक बनाया जा सकता है जो प्रवासियों की है और जिस पर खेती नहीं होती।
- इससे छोटे और सीमांत भूस्वामियों को अपनी जोत बढ़ाने का मौका मिलेगा क्योंकि वे उस जमीन को पट्टे पर ले सकेंगे। आजादी के बाद के समय और आज के समय में अंतर यह है कि औसत जोत तेजी से कम हो रही है। ऐसा इसलिए क्योंकि जमीन वारिसों के बीच बंट जाती है।
- कृषि जनगणना के मुताबिक औसत जोत सन 1970-71 के 2.28 हेक्टेयर से घटकर वर्ष 2010-11 में 1.15 हेक्टेयर रह गई। छोटे और सीमांत किसानों की बात करें तो कुल किसानों का 85 फीसदी होने के बावजूद कम जोत के चलते वे बमुश्किल जीवनयापन कर पाते हैं।
- उनकी छोटी जोत जल्दी ही और छोटी हो सकती है। ऐसे में या तो उसे अन्य किसानों को दे दिया जाए या दूसरों की जमीन पट्टे पर लेकर उसे खेती के लिहाज से व्यवहार्य बनाया जाना चाहिए। लेकिन हमारा कानूनी ढांचा इसकी इजाजत नहीं देता। अगर एक बार जमीन को पट्टों पर देने की प्रक्रिया को वैधानिक स्वरूप प्रदान कर दिया जाए तो भूस्वामियों के मन से यह डर जाता रहेगा कि अपनी जमीन पट्टेदार को देने के बाद वे उसका स्वामित्व गंवा सकते हैं।
- इसके परिणामस्वरूप जमीन का वह बड़ा हिस्सा जो उन परिवारों के पास है जो खेती नहीं करते और शहरी क्षेत्रों में रहने चले गए हैं, अचानक उपजाऊ काम के लिए उपलब्ध हो जाएगा। इतना ही नहीं अभी यह काम मौखिक, गैर बाध्यकारी समझौतों के जरिये होता है। इसकी जगह तब कानूनी रूप से प्रवर्तनीय पट्टा अनुबंध होने लगेंगे।
- फिलहाल जो किसान दूसरों की जमीन पट्टे पर लेकर खेती कर रहे हैं वे इस पट्टे की अवधि को लेकर अनिश्चित रहते हैं जिसका असर कृषि पर भी पड़ता है। दरअसल इन हालात में वे खेतों को समतल करने, कुएं खोदने, तटबंध बनाने और सही पोषण देने जैसे दीर्घावधि निवेश नहीं करते। इतना ही नहीं वे उपज बढ़ाने के लिए उन्नत बीज, उर्वरक और पौधों की रक्षा करने वाले रसायनों का प्रयोग भी नहीं करते।
- सबसे बुरी बात यह है कि पट्टे पर खेती करने वालों को संस्थागत ऋण, फसल बीमा, फसल के नुकसान पर हर्जाना और सरकारी सब्सिडी का प्रत्यक्ष हस्तांतरण तक नहीं मिलता। नीति आयोग ने भूमि रिकॉर्ड सुधारने और उनका डिजिटलीकरण करने की भी बात कही है।
- भूमि का स्वामित्व मोटे तौर पर प्रकल्पित और कानूनी चुनौती के योग्य होता है। जमीन से जुड़े विवाद दूर करने के लिए सही दस्तावेज होने जरूरी हैं। यदि ऐसा होगा तो किसानों में भी उत्पादकता बढ़ाने का उत्साह पैदा होगा और सरकार की कल्याण योजनाओं का लाभ भी उनको मिलेगा।
- ऐसे में भूमि रिकॉर्ड में सुधार और उसकी पट्टेदारी को कानूनी रूप देने की आवश्यकता निर्विवाद रूप से है। इस कदम के अलावा या इसके साथ ही ऐसे कदम भी उठाए जाने चाहिए ताकि सरकार पर जमीन की चकबंदी करने का दबाव बने।